यन्त्र शास्त्र

तन्त्रशास्त्र कोई जादू का खेल नहीं है। वह हमें उस वैज्ञानिक पद्धति की शिक्षा देता है, जिसके द्वारा मनुष्य दैवी शक्ति का अर्जन कर सकता है। बस आवश्यकता इतनी है कि हम उसकी भाषा समझें और आदरणीय ग्रन्थों की उन विधियों को उनके सही अर्थों में उपयोग में लायें।

जिस प्रकार मंत्रों में ध्वनी तरंगों की आवृत्ति का महत्व है, उसी प्रकार यंत्रों में बिन्दु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त, चर्तुभुज इत्यादि का विशिष्ट महत्व है। कुछ विद्वानों का कहना है कि एक विशिष्ïट क्रम से तथा विशिष्ïट मन्त्र द्वारा किसी देवता का ध्यान करने से उस देवता का विशिष्ट यन्त्र साधक को स्थूलरूपेण अन्तरिक्ष में दृष्टिगोचर होता है और यही जड़ यन्त्र-मन्त्र-चैतन्य अथवा सिद्ध होते ही देवता के साकार रूप में परिणत हो जाता है। देवता का यह रूप उसी प्रकार का होता है जैसा कि उस देवता के ध्यान में वर्णित है। यह विषय अत्यन्त गहन है और बिना अध्ययन अथवा अनुभव के समझ में आना कठिन है। मेरा संकेत तान्त्रिक यन्त्रों तथा चित्रों अथवा मूर्तियों से है। अन्य विद्वानों का मत है कि ये यन्त्र केवल चित्त को एकाग्र करने तथा उपास्य देव के साथ तादात्म्य-भाव उत्पन्न करने के जड़ साधन हैं।

यन्त्रों की इस ज्यामितीय संरचनाओं के अर्थों को तथा यन्त्रों की भाषा को समझना एक बहुत बड़ा व गम्भीर विषय है, हम संक्षिप्त में इसको समझने का प्रयास करेंगे।



उन्नति, प्रगति अथवा उर्ध्व गति को हम ऊपर की तरफ नोंक वाले तीर से प्रदर्शित करते हैं। अग्नि शिखाओं के चित्र के द्वारा भी हम इसी भाव को व्यक्त करते हैं, क्यों कि प्राकृतिक जगत में अग्नि की गति ऊपर की ओर अथवा उन्नति की ओर ही होती है। बाण का नोंकदार फल त्रिभुज के आकार का होता है। जब त्रिभुज का शीर्षकोण ऊपर की ओर होता है तब उस त्रिभुज से अग्निबोध होता है। इसके विपरीत जब किसी त्रिभुज का शीर्षकोण नीचे की तरफ होता है तो वह जल का बोधक होता है, क्योंकि जल की गति अधोमुखी होती है।

वृत्त के बारे में विचार करने पर हम पाते हैं कि वृत्त का उदय चक्राकार गति से होता है। जब एक बिन्दु दूसरे बिन्दु के चारों ओर घूमता है तो उसकी चक्राकार गति होती है तथा चक्राकार गति से एक वृत्त बन जाता है। अगर प्रकृति में देखें तो वायु की घूर्णन क्रिया भी चक्राकार गति और वृत्त का संकेत देती है। वायु के इस चक्रवात के सम्पर्क में जल आता है, जब जल भी घूमने लगता है। अग्नि का संयोग हो पर अग्नि भी घूमने लगती है। यह घूमने की क्रिया चक्राकार गति है और इसका बोध वृत्त के द्वारा होता है। अत: वृत्त वायु का चिन्ह है।



बिन्दु के अन्दर जो प्रत्येक प्रकार की गति में योग देता है और जो प्रत्येक आकार में प्रत्येक तत्व के अन्दर अनुप्रविष्ट रहता है, नैसर्गिक गतिशीलता होती है अथवा यों कहें कि वह स्वत: गतिशील होता है। बिन्दु अनुप्रवेश का चिन्ह है। अनुप्रवेश के भाव को हम आकाश तत्व से ग्रहण करते हैं। इसलिए बिन्दु आकाश का द्योतक है।

बिन्दु, वृत्त व त्रिभुज के अलावा अन्तिम आकृत्ति बहुभुज जो कि त्रिभुज से अधिक भुजाओं वाला होता है, विस्तार का भाव प्रकट करता है और विस्तार पृथ्वी का गुण है। इसलिए चौकोर एवं अन्य बहुभुज आकार पृथ्वी के द्योतक हैं।

उपरोक्त विचारों को हम कुछ उदाहरणों द्वारा समझने की कोशिश करेंगे।

चित्र संख्या -1 के बारे में गौतमीय तन्त्र में लिखा है कि यह यन्त्र दृष्ट एवं अदृष्ïट तथा वर्तमान एवं अनागत सब प्रकार के फलों का देने वाला है। इस यन्त्र का नाम सर्वतोभद्र है। सर्वतोभद्र का अर्थ है सब ओर से समचौरस। भगवान विष्ïणु के रथ का नाम भी सर्वतोभद्र है। इन दोनों अर्थों से हमें व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी भाव यह है कि अर्जन एवं व्यय क्रियाशीलता एवं विश्राम तथा संग्रह एवं त्याग-इन बातों के सम्बन्ध में जीवन भलीभांति तुला हुआ (संतुलित) होना चाहिए, जिसके जीवन का रथ सब ओर से अच्छी हालत में है और जो उस पर दृढ़ता के साथ आरूढ़ रहता है वह सारी व्याधियों से मुक्त रह सकता है और उसके जीवन के सारे प्रयत्न सफल होते हैं, जो सर्वतोभद्र यन्त्र को इस प्रकार समझकर उसके अनुसार आचरण करता है वह स्वस्थ, सुभग, दृढ़ एवं सफल बन जाता है।



चित्र संख्या-2 स्मरहर यन्त्र है। इसके अर्थ के प्रभाव से मनुष्य काम पर विजय प्राप्ïत कर सकता है। पाँच त्रिकोणों से बने इस यन्त्र से जो साधक शिक्षा ग्रहण करता है वह दृढ़तापूर्वक सब ओर से सतर्क रहता है कि कहीं शत्रु उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक इत्यादि शस्त्रों के द्वारा विचलित न कर दे। इस दिव्य त्रिकोण को मनुष्य के आन्तरिक शत्रुओं से बचाव व उनका अन्त करने के लिए साधक उपयोग में लाते हैं।

चित्र संख्या-3 यह यन्त्र जगत के विस्तार का भाव जिसके अन्तर्गत उन्ïनति एवं निर्माण का भाव विद्यमान है, जिसके द्वारा साधक प्राय: सभी मानवीय शक्तियों  को प्राप्त कर सकता है। उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार इसका विश्लेषण या अर्थ इस प्रकार करते हैं कि विश्व के उपादान कारण अग्नि तत्व के आकार का है जो वायु तत्व से आवृत्त होकर घूमता है और इस प्रकार घूमकर अपने चारों ओर सृष्टि की रचना करता है और वह सृष्टि स्वयं वायु तत्व से घिर कर वस्तुओं को उत्पन्ïन कर रही है।

चित्र संख्या-4  इसमें भी पाँच त्रिकोण इस प्रकार हैं जिसमें दो त्रिकोण जल के द्योतक और तीन अग्नि के। जल के गर्भ में अग्नि रहती है। एक समुदाय जल का है और दूसरा अग्नि से व्याप्ïत है। ये दोनों समुदाय भी अग्नि के मध्य में सन्निविष्ट हैं। यह सारा का सारा समुदाय भी घूमता है और सब ओर चिनगारियाँ फेंकता है। यह समुदाय भी चल है। अग्नि की नैसर्गिक शक्ति के द्वारा जल में से सृष्टि उत्पन्न होती है। क्रमश: ज्यों-ज्यों युग बीतते हैं अग्नि भूमण्डल से विलीन होती जाती है और सृष्टि का क्रम बन्द हो जाता है। इस यन्त्र द्वारा यह सूचना मिलती है कि सारी सृष्टि भ्रमण के सिद्धान्त पर अवलम्बित है। ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो घूमती न हो, क्योंकि सत्ता भ्रमण पर ही अवलम्बित है और काम आदि विकार एक प्रकार के बन्धन है जो भ्रमण में रुकावट डालते हैं। इसलिए हमें अपने विकारों का शयन करना चाहिए।



चित्र संख्यां-5 में पाँच त्रिकोण षटकोण के भीतर स्तिथ है। अग्नि जल के रूप में प्रत्येक दिशा में नियमित रूप से फैलती है और उसकी गति से ठीक एक षट्कोण बनता है। यह षट्कोण घूमने लगता है और इस गति के रूप जाने पर इसके लक्ष्य की सिद्धि स्पष्ट हो जाती है, जैसा कि अष्टकोण से सूचित होता है। इस प्रकार यन्त्र का भाव यह बनता है कि अपने लक्ष्य सिद्धि को एकाग्रता से तथा अपनी नैसर्गिक शक्ति को नियमपूर्वक जाग्रत कर उन्नति की ओर अग्रसर रहना चाहिए।

चित्र संख्या-6  यह सुविख्यात श्री यन्त्र भगवती त्रिपुर सुन्दरी का यन्त्र है। इसे यन्त्रराज अथवा सर्वश्रेष्ठ यन्त्र भी कहते हैं। इस यन्त्र में समग्र ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति तथा विकास दिखलाए गए हैं और साथ-ही-साथ यह यन्त्र साधक के मानव-शरीर का भी द्योतक है। चित्रानुसार यन्त्र के सबसे भीतरी वृत्त में वृत्त के केन्द्रस्थ बिन्दु के चारों और नौ त्रिकोण हैं। इनमें से पाँच त्रिकोण उर्ध्वमुखी (शिव युवती) और चार अधोमुखी (श्री कण्ठ) है।

पाँचों शक्ति-त्रिकोण ब्रह्माण्ड के विषय में पञ्चमहाभूत, पंचतन्मात्राओं, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय तथा पंच प्राण के द्योतक हैं। मनुष्य शरीर में यही पाँच त्रिकोण त्वक, असृक, मांस, भेद तथा अस्थिरूप में स्थित हैं और चारों शिव (पुरुषवाची) त्रिकोण ब्रह्माण्ड में चित्, बुद्धि, अहंकार तथा मनरूप में स्थित हैं और शरीर में मज्जा, शुक्र, प्राण तथा जीव रूप में विद्यमान हैं।



इन नौ त्रिकोणों के सम्मिश्रण से तैंतालिस छोटे-छोटे त्रिकोण बनते हैं, भीतरी वृत्त के बाहर आठ दल का कमल है और उसके बाहर सोलह दल का कमल है और इन सब के बाहर भूपुर है। यह श्री यन्त्र का साधारण परिचय है।

– आचार्य अनुपम जौली

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