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वास्तु शास्त्र के मुख्य पचास सूत्र

(वास्तु को जीवन में अपनाकर आप भी सुख शांति व समृद्धि प्राप्त कर सकते हो।)

आचार्य अनुपम जौली

नवीन भवन का निर्माण, पुराने की मरम्मत या वास्तुदोष का सुधार करना हो, वास्तुशास्त्र के इन पचास सूत्रो को हृदय संगम कर लेने से इस शास्त्र का पुरा लाभ उठाया जा सकता है। ये सूत्र आम जनता के लिये तो उपयोगी है ही, साथ ही सिविल इंजीनियर, आर्किटेक्ट, ठेकेदार, मिस्त्री और भवननिर्माण से जुडी कम्पनियो के अधिकारियो के लिए अत्यन्त उपयोगी है-

1). जिस जमीन मे दरारे हो, रेतीली हो, दीमक हो, पोली हो या जिसमे शल्य हो, उसमे मकान नही बनाना चाहिए।

2). जिस जमीन का घनत्व ठोस न हो या जो दलदली हो, उस पर मकान नही बनाना चाहिए।

3). जिस जमीन मे खेती, पेड-पौधे तेजी से बढते हो, जिसकी मिट्टी चिकनी हो, पानी बहुत नीचे न हो या पथरीली हो, वह भूमि मकान बनाने के लिये अच्छी होती है।

4). जिस जगह जाने पर मन मे प्रसन्नता हो और जो जगह देखने मे सुन्दर लगे, वहाँ मकान बनाना चाहिए।

5). भूखण्ड का आकर वर्गाकार, आयाताकार, भद्रासन एवं वृत्ताकार सभी प्रकार के भवनो का निर्माण करने के लिए शुभ होता है। गोमुखी भूखण्ड पर आवासीय भवन और सिंहमुखी भूखण्ड पर व्यावसायिक भवन बनाना शुभ होता है। इसके अलावा षडभुजाकार एवं अष्टभुजाकार भूखण्ड भी शुभ होता है।

6). त्रिभुजाकार, विषम बाहु, चक्राकार, सर्पाकार, अर्धवृत्ताकार, अण्डाकार, धनुषाकार, विजनाकार, कूर्मपृष्ठाकार, ताराकार, त्रिशुलाकार, पक्षीमुख एवं कुम्भाकार भूखण्ड अशुभ होते है।

7). त्रिभुजाकार आदि अशुभ भूखण्डो पर मकान बनाना अत्यावश्यक हो, तो उनके बीच मे चौकोर आकृति निकल कर सुधार करना चाहिये और बची जमीन पर दिशा के अनुसार पेड पौधे एवं घास लगानी चाहिए। इस सुधार के बाद वहाँ मकान बनाया जा सकता है। फिर भी ऐसा मकान मध्यम फलदायक होता हे।

8). विशाल भूखण्ड ऐश्वर्यदायक होता है किन्तु वह किसी तरफ से कटा-फटा नही होना चाहिए।

9). दो बडे भूखण्डो के बीच छोटा सा सकरा भूखण्ड अच्छा नही हेाता। उस पर आवासीय भवन नही बनाना चाहिए।

10). भूखण्ड की लम्बाई उत्तर दक्षिण की अपेक्षा पूर्व पश्चिम मे अधिक हो, तो शुभ होती है।



11). भूखण्ड का ढलान पूर्व एवं उत्तर की ओर होना अच्छा होता है, पश्चिम एवं दक्षिण की ओर नही।

12). भूखण्ड के बीच मे पश्चिम, नैऋत्य, आग्रेय, वायव्य एवं दक्षिण मे कुँआ, बोरिंग, भूमिगत टंकी, सैप्टिक टैक या किसी प्रकार का गड्ढा शुभ नही होता।

13). भूखण्ड पर आस-पास के भूखण्डो का पानी बहकर आना या भूखण्ड का आसपास के धरातल से नीचा होना शुभ नही होता।

14). भवन बनाते समय पश्चिम की अपेक्षा पूर्व मे और दक्षिण की अपेक्षा उत्तर मे अधिक खाली जगह छोडनी चाहिए।

15). भूखण्ड के पश्चिम एवं दक्षिण मे ऊँचे पेड, पहाडी, चट्टान, टीला एवं ऊँचे मकान शुभ होते है, पूर्व एवं उत्तर मे नही।

16). भूखण्उ के चारो ओर, उत्तर या पूर्व से सडक होना शुभ होता है। पश्चिम मे सडक होना, पूर्व एवं पश्चिम मे दोनो ओर सडक होना या उत्तर एवं दक्षिण मे दोनो ओर सडक होना मध्यम होता है।

17). आवासीय भूखण्ड के बिल्कुल पास मे श्मशान, कब्रिस्तान, मन्दिर, सिनेमा या सार्वजनिक स्थान होना अच्छा नही होता।

18). भवन का द्वार पूर्व या उत्तर मे रखना श्रेष्ठ है। पश्चिम मे द्वार सामान्य है। दक्षिण मे द्वार नही रखना चाहिए। द्वार के उपर द्वार नही बनाना चाहिए किन्तु ये नियम बहुमंजिले भवनो मे लागू नही होता।

19). पूजाघर के लिए ईशानकोण श्रेष्ठ है। यह पूर्व एवं उत्तर मे बनाया जा सकता है।

20). रसोईघर, भट्टी, बायलर आदि आग्रेय कोण मे श्रेष्ठ होते हैं। इनको आग्रेय के पास दक्षिण एवं पूर्व मे भी बनाया जा सकता है।



21).  देवालय एवं धर्मस्थल मे द्वार चारो दिशाओ मे बनाये जा सकते है।

22).  शयनकक्ष दक्षिण मे श्रेष्ठ होता है। यह ईशान, आग्रेय, पूर्व को छोडकर कही भी बनाया जा सकता है।

23). भारी वस्तुओ का स्टोर नैऋत्य मे और बिक्री के लिए तैयार माल या रोजमर्रा के काम की चीजों का स्टोर वायव्य मे बनाना अच्छा होता है।

24). अध्ययन कक्ष वायव्य, उत्तर एवं पूर्व मे बनाना चाहिए।

25). भोजनकक्ष पश्चिम मे बनाना श्रेष्ठ है। यह कक्ष  आग्रेय एवं पूर्व के बीच, आग्रेय एवं दक्षिण के बीच वायव्य एवं उत्तर के बीच तथा मकान के बीच मे बह्म स्थान को छोडकर बनाया जा सकता है।

26). हवेली के बीच मे आँगन बनाना श्रेष्ठ है। इसका ढाल पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिए।

27). बेसमेन्ट आधे से कम भाग पर बनाना चाहिए। यह पूर्वी एवं उत्तरी भाग मे बनाना अच्छा होता है।

28). ड्राईग रूम या लिविग रूम आग्रेय एवं दक्षिण के बीच, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य एवं पश्चिम के बीच, उत्तर एवं वायव्य के बीच मे बनाया जा सकता है।

29). आवासीय भवन मे दक्षिण एवं नैऋत्य के बीच, उत्तर एवं ईशान के बीच तथा पूर्व मे आँफिस बनाना चाहिए।

30). पोर्टिको ईशान, पूर्व, आग्रेय या उत्तर मे बनाना उपयुक्त होता है।



31). गोबर गैस प्लान्ट ईशान, पूर्व, आग्रेय या उत्तर मे बनाना श्रेष्ठ है।

32). शयन कक्ष मे सोते समय सिराहा दक्षिण या पश्चिम मे रखना चाहिए। उत्तर की ओर सिराहना सर्वथा वर्जित है।

33). शौचालय मे शौच के समय मुख उत्तर या दक्षिण की ओर होना चाहिए।

34). छत के ऊपर पानी की टंकीयाँ दक्षिण एव पश्चिम मे रखनी चाहिए। पूर्व, उत्तर या ईशान मे कदापि नही रखना चाहिए।

35). भवन की दीवारे दक्षिण एवं पश्चिम मे ऊँची तथा उत्तर एवं पूर्व मे नीची रखनी चाहिए।

36). सभी द्वार एवं खिडकियो की ऊँचाई समान सूत्र मे रखनी चाहिए।

37). कमरो मे अलमारी, सोफा, पलंग या स्थायी रूप से रखने वाला भारी समान दक्षिण नैऋत्य या पश्चिम मे रखना चाहिए।

38). सिंहमुखी भूखण्ड पर व्यावसायिक भवन का निर्माण शुभ होता है, गोमुखी पर नही।

39). व्यावसायिक भवन के लिए समीप मे मन्दिर, धर्मस्थल, सिनेमा, चौराहा एवं सार्वजनिक स्थान होना अच्छा होता है।

40). मन्दिर मे गर्भग्रह, प्रांगण, द्वार एवं शिखर का निर्माण वास्तु के अनुसार करना चाहिए।



41). भवन से जल एवं मल की निकासी वायव्य, उत्तर एवं पूर्व दिशा मे होनी चाहिए।

42). भवन मे अधिकतम तीन तरह की लकडी का इस्तेमाल कर सकते है। नये भवन मे पुरानी लकडी का इस्तेमाल नही करना चाहिए।

43). बने-बनाये भवन का विस्तार चारो दिशाओ मे करना या उत्तर एवं पूर्व की ओर करना श्रेष्ठ है।

44). भूखण्ड की मिट्टी पोली हो या शल्य दोष हो, तो उसकी मिट्टी खुदवाकर निकालकर नया मिट्टी का भरवाकर उस पर भवन बनाया जा सकता है।

45). भवन की आन्तरिक साज सज्जा मे युद्ध एवं दुर्घटना के चित्र, पत्थर एवं लकडी से बनी शेर, चीता, सूअर, सियार, सर्प, उल्लू, कबूतर, कौआ, बाज तथा बगुले की मूर्ति रखना शुभ नही माना जाता। देवताओ की मूर्ति पूजाघर मे पूजा एवं ध्यान के लिए रखना उचित है, सजावट के लिए नही।

46). भवन का शिलान्यास एवं गृहप्रवेश शुभ-मुहूर्त मे ही करना चाहिए।

47). पूराने घर की मरम्मत के बाद, वास्तुदोष के सुधार के बाद एव्र गृहप्रवेश के समय वास्तुशान्ति एवं अपने धर्मानुसार अनुष्ठान करना चाहिए।

48). पंचमहाभूतो के तालमेल के साथ निर्मित भवन का सन्तुलन एवं प्राकृतिक शक्तियो का प्रबंधन वास्तुशास्त्र कहलाता है।

49). यह शास्त्र वातावरण का विचार कर उसमे विद्यमान गुरूत्वशक्ति, चुम्बकीय एवं सौर ऊर्जा का उपयोग कर तन, मन एवं जीवन को स्वत: स्फूर्ति करने के नियमो का प्रतिपादन करता है।

50). वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र मे अंग एवं अंगीभाव सम्बंध है। अत: वास्तुशास्त्र के साथ साथ ज्योतिषशास्त्र के माध्यम विचार करने पर जीवन की समस्या एवं सकटो के समाधान मे सरलता रहती है।



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