अँधा अँधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत

अँधा अँधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत

(इन्सान आंखों से अंधा हो तो उसकी बाकी ज्ञान इन्द्रियाँ ज़्यादा काम करने लगती हैं, लेकिन अक्ल के अंधों की कोई भी ज्ञान इंद्री काम नहीं करती…)

-आचार्य अनुपम जौली 

आज बहुत से सवाल अंतर्मन में चल रहे है पाखंडी बाबाओं, पाखंडी संतो, धूर्त धर्मगुरुओ के बारे में। मुर्ख बनाने वाला भी तभी मुर्ख बना सकता है जब लोग मुर्ख बनने को तैयार हो।

  1. प्रश्न ये है की ये वो कौन लोग हैं जो आशाराम बापू के लिए बेसुध होकर रोते है ?
  2. राम रहीम के लिए कुछ भी फूंकने को तैयार..?
  3. राधे मां का फाइव स्टार आशीर्वाद लेने वाले…?
  4. राम पाल के लिए अपनी जान तक दे देने वाले…?
  5. निर्मल बाबा की हरी चटनी खाकर अरबपति बन जाने वाले..?

बाबा जी को किसी भगवान पे विश्वास नहीं होता.. बाबा जी Z सिक्योरिटी में बैठकर कहते हैं कि,” जीवन-मरण ऊपर वाले के हाथ में है”

  • अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं, वे सोचते नहीं हैं….
  • बाबा जी दौलत के ढेर पे बैठकर बोलते हैं कि,” मोह-माया छोड़ दो ”
  • लेकिन उत्तराधिकारी अपने बेटे को ही बनायेंगे.. अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं, वे सोचते नहीं हैं…..
  • भक्तों को लगता है कि उनके सारे मसले बाबा जी हल करते हैं, लेकिन जब बाबा जी मसलों में फंसते हैं, तब बाबा जी बड़े वकीलों की मदद लेते हैं..
  • अंधभक्त बाबा जी के लिये दुखी होते हैं, लेकिन सोचते नहीं हैं…..
  • भक्त बीमार होते हैं..डॉक्टर से दवा लेते हैं.. जब ठीक हो जाते हैं तो कहते हैं, ” बाबा जी ने बचा लिया ”

क्या होता है जब बाबा जी बीमार होते हैं


बाबा जी बीमार होते हैं तो बड़े डॉक्टरों से महंगे अस्पतालों में इलाज़ करवाते हैं. अंधभक्त उनके ठीक होने की दुआ करते हैं लेकिन सोचते नहीं हैं….. अंधभक्त अपने बाबा को भगवान समझते हैं…उनके चमत्कारों की सौ-सौ कहानियां सुनाते हैं. लेकिन जब बाबा किसी अपराध में जेल जाते हैं, तब वे कोई चमत्कार नहीं दिखाते.. तब अंधभक्त बाबा के लिये लड़ते-मरते हैं, लेकिन वे कुछ सोचते नहीं हैं….. कुछ जबाव भी सामने आ रहे हैं।

दरअसल इस भीड़ के मूल में दुःख है, अभाव है, गरीबी है और शारीरिक मानसिक शोषण है। अहंकार के साथ कुछ हो जाने की तमन्ना है।

एक ऐसा विश्वास है जिस पर आडंबरों की फसल लहलहाती है। आप जरा ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे भक्तों की संख्या में ज्यादा संख्या महिलाओं, गरीबों, दलितों और शोषितों की है। इनमें कोई अपने बेटे से परेशान है तो कोई अपने बहू से। किसी का जमीन का झगड़ा चल रहा तो किसी को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अपनी सारी जायदाद बेचनी पड़ी है। किसी को सन्तान चाहिए किसी को नौकरी।
दूसरे प्रकार के भक्त- राजनेता, बिज़नेस मैन, हाई प्रोफाइल लोग जो बाबा के साथ मिलकर लायसनिंग और भीड़ से फायदा उठा कर उपने उल्लू सीदा कर बाबा से फायदा लेने देने का काम कर रहे होते है।
यानी हर आदमी एक तलाश में है। ये भीड़ रूपी जो तलाश है ये धार्मिक तलाश नहीं है। ये भौतिक लोभ की आकांक्षा में उपजी प्रतिक्रिया है।

वो किसी रामपाल के पास नहीं, किसी राम कृष्ण परमहंस के पास जाता है..
वो किसी राम रहीम के पास नहीं, कबीर के पास जाता है..
उसे पैसा, पद और अहंकार के साथ भौतिक अभीप्साओं की जरूरत नहीं उसे ज्ञान की जरुरत होती है।

गीता में भगवान कहते हैं : न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रम – इह विद्यते

अर्थात ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है.. न ही गंगा न ही ये साधू संत और न ही इनके मेले और झमेले।

लेकिन बड़ी बात कि आज ज्ञान की जरूरत किसे हैं ? चेतना के विकास के लिए कौन योग दर्शन पढ़ना चाहता है?
कौन परमहंस योगानंद द्वारा प्रदर्शित ध्यान और क्रियाओं में समय लगता है।

कृष्णमूर्ति जैसे शुद्ध वेदांत के ज्ञाता के पास महज कुछ ही लोग जाते थे। ऐसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं और कितने सिद्ध महात्माओं को तो हम जानते तक नहीं। यहाँ जो चेतना को परिष्कृत करने ध्यान करने और साधना करने की बातें करता है उसके यहां भीड़ कम होती है और जो नौकरी देने, सन्तान सुख देने और अमीर बनाने के सपने दिखाता है उसके यहाँ लोग टूट पड़ते हैं। वहीं सत्य साईं बाबा के यहाँ नेताओं, और अफसरों की लाइन लगी रहती थी, क्योंकि वो हवा से घड़ी, सोने की चैन, सोने शिवलिंग प्रगट कर देते थे, राख और शहद बांट रहे थे।
क्या ताज्जुब है कि जिस साईं बाबा ने पूरा जीवन फकीरी में बिता दिया। उसकी मूर्तियों में सोने और हीरे जड़ें हैं। जिस बुद्ध ने धार्मिक आडम्बरो को बड़ा झटका दिया संसार मे उन्हीं की सबसे ज्यादा मूर्तियां हैं।

दरअसल ये सब अन्धविश्वास एक दिन में पैदा नहीं होता, ये पूरा एक चक्र है।

जरा ध्यान से टीवी देखिये, रेडियो सुनिये, हम क्या देख रहें हैं..क्या सुन रहें हैं ? अन्धविश्वास ही तो देख रहें हैं। वही तो सुन रहे हैं यानी ठंडा मतलब कोकाकोला होता है, फलां बनियान पहन लो लड़कियां तुम्हारे लिए सब कुछ कर देंगी, ये इत्र लगाओ तो लड़कियां तुम्हारे लिए मर जाएंगी, इस कम्पनी की चड्ढी पहन लो तो गुंडे अपने आप भाग जाएंगे, ये पान मसाला खाओ स्वास्थ्य इतना ठीक रहेगा कि दिमाग खुल जाएगा।

ये सब बेवकूफियों पर रोक लगनी चाहिए या नहीं ? तभी हम चाहें कोई आर्थिक बाजार हो या धार्मिक बाजार इससे बच सकतें हैं। ये धार्मिक गुरु जो होतें हैं ये काउंसलर होते हैं. ये धार्मिक एडवर्टाइजमेंट करते हैं।

यहां आपका का विवेक शून्य हो जाता है और आप वही करने लगतें हैं जो आपके अवचेतन में भर दिया जाता है। आज जरुरत है जागरूकता की..विवेक पैदा करने की…जरा तार्किक बनने की और उससे भी ज्यादा ज्ञान की तलाश में भटकते रहने की..वरना हम यूँ ही भटकते रहेंगे…“आत्म ज्ञान बिना नर भटके कोई मथुरा कोई काशी”

ऋते ज्ञानान्न न मुक्ति:*

अर्थात ज्ञान के बिना कोई मुक्ति नहीं है। आज बड़े आराम से कोई भी कह देता है धर्म एक अफीम का नशा है जो एक बार चख लो तो फिर छूटता नहीं है। परन्तु धर्म किसी भी प्रकार की मानसिक गुलामी नहीं है, धर्म तो व्यक्ति के मूल स्वभाव से मिलाता है और आत्मिक उन्नति के पथ पर आगे बड़ाता है। तर्क, बुद्धि, ज्ञान सब कसौटियों पर कसे बिना कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए।

(उपरोक्त लेख के कुछ शब्दों को एक वाट्सएप मैसेज से लिया गया है जो की बहुत सटीक लगे। जिसको आधार बना ये एडिटोरियल लिखा है। धन्यवाद।)

।। ॐ तत सत ।।

Acharya Anupam Jolly, (www.astrologyrays.com)

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